Monday, April 13, 2015

{ ९११ } {April 2015}





जिस दिल में लिखी थीं सच्चाइयाँ
उस दिल को दर्द ही दर्द मिलते रहे।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

{ ९१० } {April 2015}





उम्र भर खामोश रहा अब अँजुमन से क्या बोलूँ
कोई दवा न देगा ऐसे में दिल के दर्द क्या खोलूँ।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

{ ९०९ } {April 2015}





रो-रो कर चाँद की चाँदनी ने कर ली खुदकुशी
जिस दम परछाँईं देखी तेरे आँगन में गैर की\

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

{ ९०८ } {April 2015}





हम खडे हैं आज भी भरी भीड़ मे तनहा
तुम क्या साथ तुम्हारा साया भी नहीं।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

{ ९०७ } {April 2015}





गुलों की खुशबू, चमन का निखार तुम हो
ज़िन्दगी-ए-चमन की फ़सले बहार तुम हो
तेरे बगैर वीरान-बियाबाँ हो जाता है ये दिल
मेरी हर नज़र का सुरूर तुम खुमार तुम हो।।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

{ ९०६ } {April 2015}





मोहब्बत करने वालों से मेरा अदना सा एक सवाल है
शको-शुबहा की बुनियाद पर मोहब्बत करेंगे क्या।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

{ ९०५ } {April 2015}





उनसे बगावत करना मेरे लिये मुमकिन नहीं
मान कर अपना मुकद्दर खामोश रहता हूँ।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

{ ९०४ } {April 2015}





न जाने कब से इधर-उधर भटक रहा है
मेरी किस्मत का जो खत लिखा उसने
इसमें ड़ाकिया क्या करे जब लिफ़ाफ़े पे
मेरा पता ही गलत लिख दिया उसने।।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

{ ९०३ } {March 2015}




दूर के पत्थर मोती है, मुट्ठी के मोती हैं पत्थर
हो रहा निस्बतों का समंदर इसी लिये लहू-लहू।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

{ ९०२ } {March 2015}





मेरी. आँखों. के. समन्दर. रीत गये
बिन. बादल. बरसे सावन बीत गये
दिल की बाजी का कुछ हिसाब नहीं
कितने दिल हारे कितने जीत गये।।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

{ ९०१ } {March 2015}





डोल रही है कश्ती मेरी बीच दरिया में
पाने को साहिल एक लहर ही काफ़ी है।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

{ ९०० } {March 2015}





ज़िन्दगी. है हँसी-खुशी के लिये
एक. रँगीन. दिलकशी के लिये
आओ हम बाँटे प्यार आपस में
कोई गैर न हो किसी के लिये।।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

{ ८९९ } {March 2015}




मरने से पहले हम मरते सौबार इस जहाँ में
बेबस हो गई ज़िन्दगी पर मदहोश है जमाना।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

{ ८९८ } {March 2015}





तेरी मुस्कान भी कितनी मौलिक है
जो किसी मणिदीप सी दमकती है
रूपसागर की ये कमिलिनी भी तो
जैसे तेरा ही अनुवाद सी लगती है।।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

Sunday, April 12, 2015

{ ८९७ } {March 2015}





एक हम हैं जो आज भी तनहाई में जी रहे हैं
तुम्हारा क्या, तुम्हारा तो ये सारा जमाना है।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

{ ८९६ } {March 2015}




सुधियों से बोझिल नयनों में जब आँसू भर आते हैं
पलकों के दरीचे बन्द कर करते हम खुद से बाते हैं।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

{ ८९५ } {March 2015}




हम गायें गीत-गज़ल तुम मस्त झूम-झूम जाओ
तुम्हारी बज़्म में आकर गाना अच्छा लगता है।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

{ ८९४ } {March 2015}





तुम बजाहिर तो मुस्कुराते हो
और भीतर अगिन अदावत की
दोस्ती भी आजकल हो गई है
जैसे कोई शै हो तिजारत की।।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

{ ८९३ } {March 2015}





खो गया है सूरज कहीं पर दूर लगता है सबेरा
रिक्तता ही रिक्तता है ज़िंदगी का पथ अंधेरा
खोजते है इस बियाबान में किसे ये प्राण मेरे
वन-उपवन में हरतरफ़ हो गया तम का बसेरा।।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

Saturday, April 11, 2015

{ ८९२ } {March 2015}




अपरिमित रूप का सागर तुम ही हो
सुधा की नव्यतम गागर तुम ही हो
तुम्ही मधुमास की मादक मधुर मधु
प्रणय के प्राण का आगर तुम ही हो।।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल


आगर = खजाना


{ ८९१ } {March 2015}





है हसरत यही कि जल्द आपका कहीं दीदार हो
कब तलक यूँ आपकी तस्वीर देख जिन्दा रहूँ।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

{ ८९० } {March 2015}





हम समझते थे कल तक जिन्हे अपना मौसमे-बहार
आज वो ही हमको दिखला रहे हैं आइना पतझार का।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

{ ८८९ } {March 2015}





यूँ न देखा कीजिये अपनी कातिल निगाहों से
शहर का हर शख्स कहीं दीवाना न हो जाये।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

{ ८८८ } {March 2015}





सन्नाटा ठहरा हुआ अन्तरतम की घाटी में
छन्द नहीं उगते हैं अब आँसुओं की माटी में
माथे की शिकनों में सम्बन्ध विलीन हो रहे
मौन हुई भावों की भाषा प्रश्नों की तैलाटी में।।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

तैलाटी = बर्र, ततैया

{ ८८७ } {March 2015}





मशहूर हुआ हूँ मैं इस कदर तेरी मोहब्बत में
मुमकिन नहीं अब तेरे प्यार को भुला पाना।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

{ ८८६ } {March 2015}





एक तितली उडी हुआ फ़ूल बेचैन है
पाँखुरी-पाँखुरी हो कट रही अब रैन है
घायल हुआ है जब से रूप का मौसम
मछली बिन ताल भी हो गया बेचैन है।।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

{ ८८५ } {March 2015}





गर ज़ख्म भर जायेंगें तो फ़िर किसे याद करेंगे हम
इन टीस भरे रिसते हुए ज़ख्मों को हरा ही रहने दो।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

{ ८८४ } {March 2015}





तकिये पर सपने आज भी सोए होंगें
हँसने के पहले वो जी भरकर रोए होंगे
क्यों नींदों की अँखियों से दूरी हो गयी
तुमने भी शायद कुछ काँटे बोए होंगें।।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

{ ८८३ } {March 2015}




अब डर लगता है अपनी आँखों में सपनों को सजाने से
वो जालिम कहीं मेरे हसीं ख्वाबों को चूर-चूर न कर दे।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

{ ८८२ } {March 2015}




क्यों नाराज है जालिम अब तू मुझसे
तुझे चाहा है कोई गुनाह तो नहीं किया।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

Friday, April 10, 2015

{८८१} {Feb 2015}





उस हमनशीं की याद में शबोरोज़ ये आँखें बरसती हैं
पर वो ज़ालिम न ही मुझे याद करता न पास बुलाता है।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

{८८०} {Feb 2015}





जेहन में उनके मेरे जज़्बातों की कदर अब बची नहीं
इलज़ाम लगाना जब से उनकी फ़ितरत हो गयी है।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल