सिलसिला दर्दों-ग़म का ही जारी है 
जीस्त की चुकता हो रही उधारी है। 
-- गोपाल कृष्ण शुक्ल
शकों-शुबहा की रेत के आशियाने कब टिकते हैं 
किसी दिल में प्यार का घर बनाओ तो अच्छा है। 
-- गोपाल कृष्ण शुक्ल
मोहब्बत का असर आज होता क्यों नहीं 
शायद चाँदनी के बीच बदली आ गई है। 
-- गोपाल कृष्ण शुक्ल
चाँद जाने कहाँ कैसे खो गया 
चाँदनी को ही हम तरसते रहे। 
-- गोपाल कृष्ण शुक्ल




 
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