ये खून रिस रहा है ज़ख्मे-नज़र का
जाने क्यों दुनिया इसे अश्क कहती है।
-- गोपाल कृष्ण शुक्ल
याद कर उस भूली-बिसरी याद को
हमने सोए हुए ज़ख्म को जगाया है।
-- गोपाल कृष्ण शुक्ल
संगे-राह उनकी रहगुजर से हमेशा हटाता रहा हूँ
शिकायतें मेरे हम-राहियों को फिर भी है मुझसे।
-- गोपाल कृष्ण शुक्ल
न ही पूजा हूँ, न ही बन्दगी हूँ मैं
जी भर जी लो मुझे ज़िन्दगी हूँ मैं।
-- गोपाल कृष्ण शुक्ल
शतरंज की बिसात पर रखी है ज़िन्दगी
मोहरा बन के रह गया हर आदमी यहाँ।
-- गोपाल कृष्ण शुक्ल
रह न सकूँ साकी मैं होश में
कोई जाम ऐसा पिला दे तू।
-- गोपाल कृष्ण शुक्ल
मोहब्बत में मुकद्दर ने हमें यही सौगातें दी हैं
ज़िन्दगी सजा, साँसें कफ़स के मानिन्द हो गईं।
-- गोपाल कृष्ण शुक्ल
No comments:
Post a Comment