न हुआ दर्द कभी गैरों के चुबहोए खंजर से
हम अपनों के फेंके पत्थरों से चोट खाये हैं।
-- गोपाल कृष्ण शुक्ल
कितने मासूम होते हैं गुलशन में खिले हुए ये महकते फ़ूल
चमन में मँडराते हर भँवरे को अपना दोस्त समझ लेते हैं।
-- गोपाल कृष्ण शुक्ल
वो दोस्त है या कि दोस्त नुमा दुश्मन है
रहगुजर में हमारी जो पत्थर सजा रहा है।
-- गोपाल कृष्ण शुक्ल
दर्दे-दिल सहते-सहते कितना जमाना गुजर गया
पर समझ न पाये अभी तक उसकी रुसवाई को।
-- गोपाल कृष्ण शुक्ल
उसके खयालों की गठरी हमेशा पास रही
फिर न जाने क्यों ज़िन्दगी हमेशा उदास रही
शायद वो मेरी आवाज को सुन न सका हो
पर, उसको आवाज देती मेरी साँस रही।।
-- गोपाल कृष्ण शुक्ल
पढ़ना चाहता था मैं उसके हुस्न की इबारत को
पर उसके मद भरे नयनों में उलझ कर रह गया।
-- गोपाल कृष्ण शुक्ल
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