Monday, March 31, 2014

{ ७५७ } {March 2014}





बहुत. दूर. से वो. आज. यूँ गुजर गया
खत्म. बात का. सिलसिला. कर गया
बढ़ रही तनहाइयाँ धूमिल परछाइयाँ
शायद सूख मोहब्बत का शजर गया।।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

{ ७५६ } {March 2014}





सब जान गये. कैसा है कागजी इंकलाब तुम्हारा
अब चेहरा न ढँक सकेगा नकली हिजाब तुम्हारा
देश-सेवा के नाम पर देते रहे आरँभ से ही धोखा
जनता के सवालों पर आता फ़र्जी जवाब तुम्हारा।।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

{ ७५५ } {March 2014}






बेसहारों. का. मददगार. अब. कौन है
आदमीयत का तरफ़दार अब कौन है
लूट, छीना-झपटी का मँजर हरतरफ़
मुल्क. के लिये वफ़ादार अब कौन है।।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

{ ७५४ } {March 2014}






आओ. परचम-ए-बुलन्दी. को. लहरायें
उदास चमन में फ़िर. से बहारों को लायें
टकरा. के जिनसे. चूर हो जाते हैं आइने
आओ उन सख्त पत्थरों को फ़ूल बनायें।।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

{ ७५३ } {March 2014}





मैंने जब भी अपनी कलम उठाई
गम जमाने का जुड़ गया मुझसे
जब भी लिखा दर्द की सियाही से
कोई अपना बिछुड़ गया मुझसे।।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

{ ७५२ } {March 2014}





काश कुछ ऐसा हो जाये
आदमी, आदमी हो जाये
हँसते हुए जिये हर कोई
हर तरफ़ रोशनी हो जाये।।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

{ ७५१ } {March 2014}





किसको कौन सहारा दे अब अँधियारा परिहास कर रहा
प्रीति कँगनों की बिकती है संशय उर में वास कर रहा
आशाओं के दर्पण टूटे, अब दर्द अपना मनमीत हुआ
छलने वाले तो छलते है अब आँसू भी उपहास कर रहा।।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

{ ७५० } {March 2014}





इधर हम आकुल हैं उधर तुम भी व्याकुल हो
जमाना बड़ा बैरी है जो हमें मिलने नहीं देता।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

{ ७४९ } {March 2014}





आँधियाँ चलने को हैं, अब जरा तुम सँभल जाओ
फ़िज़ा बदलने को है, अब जरा तुम सँभल जाओ
जिनको समझ रहे हो तुम तिनका, ओ जड़ मनुज
व्योम में चढ़ने को हैं, अब जरा तुम सँभल जाओ।।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

{ ७४८ } {March 2014}





द्वार पर आई थी फ़ूलों की ऋतु बस अभी-अभी
फ़ूल तो चुन  सका कोई चमन में काँटे बो गया।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

{ ७४७ } {March 2014}





सुख पाने जाते जब भी हम दुख की गठरी ले आते हैं
और उसे काँधे पर डाले-डाले जीवन भर ढ़ोते जाते हैं
बने चतुर पर जान न पाये निज मन की ही गति को
सुख पाने की अभिलाषा में दर-दर की ठोकर खाते हैं।।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

{ ७४६ } {March 2014}





गुमसुम से हम दिल में एक तूफ़ान छुपाये बैठे हैं
हमको न अवसर मिला व्यथा अपनी सुनाने का।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

{ ७४५ } {March 2014}





दुख का वातावरण बदलना है
दर्द का यह चलन बदलना है
अपनी धरती और चमन का
अब हमको बागबान बदलना है।।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

Sunday, March 30, 2014

{ ७४४ } {March 2014}





तेरा खयाल, तेरी याद और मेरी बेचैनी
इसी मँजर से अब अपना दोस्ताना हुआ।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

{७४३} {March 2014}





दुख-दर्द का तप्त सूर्य हृदय की गोद में जलता रहा
डबडबाई आँखें, वेदना का शब्द अधरों में पलता रहा
हम जानते हैं आखिरी अंजाम अपनी मोहब्बत का
जीस्त भर हुस्न हमको बस इसी तरह छलता रहा।।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल