सब जान गये. कैसा है कागजी इंकलाब तुम्हारा
अब चेहरा न ढँक सकेगा नकली हिजाब तुम्हारा
देश-सेवा के नाम पर देते रहे आरँभ से ही धोखा
जनता के सवालों पर आता फ़र्जी जवाब तुम्हारा।।
किसको कौन सहारा दे अब अँधियारा परिहास कर रहा
प्रीति कँगनों की बिकती है संशय उर में वास कर रहा
आशाओं के दर्पण टूटे, अब दर्द अपना मनमीत हुआ
छलने वाले तो छलते है अब आँसू भी उपहास कर रहा।।
आँधियाँ चलने को हैं, अब जरा तुम सँभल जाओ
फ़िज़ा बदलने को है, अब जरा तुम सँभल जाओ
जिनको समझ रहे हो तुम तिनका, ओ जड़ मनुज
व्योम में चढ़ने को हैं, अब जरा तुम सँभल जाओ।।
सुख पाने जाते जब भी हम दुख की गठरी ले आते हैं
और उसे काँधे पर डाले-डाले जीवन भर ढ़ोते जाते हैं
बने चतुर पर जान न पाये निज मन की ही गति को
सुख पाने की अभिलाषा में दर-दर की ठोकर खाते हैं।।
दुख-दर्द का तप्त सूर्य हृदय की गोद में जलता रहा
डबडबाई आँखें, वेदना का शब्द अधरों में पलता रहा
हम जानते हैं आखिरी अंजाम अपनी मोहब्बत का
जीस्त भर हुस्न हमको बस इसी तरह छलता रहा।।