Sunday, October 5, 2014

{ ७८७ } {July 2014}





मुब्तदा उलझने बढ़ती रही रात भर
धार आँसुओं की बहती रही रात भर
गुम हो गया कहीं दिल का चैनों-सुकूँ
संगे-दिल की याद आती रही रात भर।।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

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