Thursday, October 2, 2014

{ ७७४ } {June 2014}






बुझ चुकी है जलते चिरागों की ज़िन्दगी
लौट कर न आयेगी सहर की वो ताजगी
सिलसुले तो जुड़े हैं धड़कनों से अब भी
पर बुझ न सकेगी अब होठों की तिश्नगी।।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

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