Tuesday, December 27, 2022

{९९०}




सिलसिला दर्दों-ग़म का ही जारी है 
जीस्त की चुकता हो रही उधारी है। 

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल 





शकों-शुबहा की रेत के आशियाने कब टिकते हैं 
किसी दिल में प्यार का घर बनाओ तो अच्छा है। 

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल 




मोहब्बत का असर आज होता क्यों नहीं 
शायद चाँदनी के बीच बदली आ गई है। 

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल 





चाँद जाने कहाँ कैसे खो गया 
चाँदनी को ही हम तरसते रहे। 

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल 



No comments:

Post a Comment