Saturday, May 26, 2012

{ २९२ } {May 2012}





अब नहीं गीत-खुश्बू-जाम-शहनाई
मेरी महफ़िलें बनी हैं अब तनहाई
अब भी मुस्कुराने का मन होता है
मुस्कुराया जब भी आँख भर आई।।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

{ २९१ } {May 2012}





ये ज़िन्दगी कब बिखर जाये
चैतन्यता का नशा उतर जाये
मुझको गम नही बिखरने का
बस किसी की राह सँवर जाये।।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

{ २९० } {May 2012}





खडी नजरों के आगे, आफ़त ही आफ़त
लानत ऐसे शासन पर, हुई जो बेरहमत
जेबें खाली हुईं, सिर्फ़ नून-रोटी के बाबत
महँगाई है कर रही, नव-पीढी का स्वागत।।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

{ २८९ } {May 2012}





आँधियों से दोस्ती है जिसकी
जो भँवर के ही गीत गाता है
ऐसे माँझियों से बाज आए हम
जिसका तूफ़ान से ही नाता है।।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

{ २८८ } {May 2012}





सितारों को ले हसीन रात झूम रही है
कलियों के होठ को किरण चूम रही है
गुमान कर नाच रही मदमस्त जवानी
लगे जैसे नई धुरी पर जमीं घूम रही है।।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

{ २८७ } {May 2012}





जिसके दिल में आग जलती प्यार की
चाँदनी ने खुद नहलाया जिसका तन है
धन-दौलत का वो करे भी क्या आखिर
जिसको भरपूर मिला हुस्न का धन है।।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

{ २८६ } {May 2012}





हाथों में जब भी उनका हाथ आता है
जलतरंग सा पोर - पोर गुनगुनाता है
हिजाब में जगमगाता जब रुख उनका
हल्कए-आगोश को मन ललचाता है।।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

{ २८५ } {May 2012}





शर्माती रहेंगीं कलियों की महक तब तक
धुँधली रहेगी सितारों की चमक तब तक
आसमान भी तरसेगा सूरज की किरण को
लहराओगी तुम अपने गेसुओं को जब तक।।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

{ २८४ } {May 2012}





व्यवस्था को बदलना है, बनी बैठी है जो विषधर
भटकते हैं अँधेरों में, नही मिलता है कोई अवसर
अगर चाहते कुछ करना, लगा दो आग कुछ ऐसी
न नेता मौज कर पायें, न जनता भूख से जाये मर।।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

Wednesday, May 23, 2012

{ २८३ } {May 2012}





मुस्कुराओ जरा मन बहल जाये
ये दिलों की अनबन निकल जाये
आओ बैठो बातें करें मोहब्बत से
गम का ये वातावरण बदल जाये।।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल


Tuesday, May 22, 2012

{ २८२ } {May 2012}





मत बैठो गुमसुम-गुमसुम, चल दारू पीते हैं
होने दो मन सरगम-सरगम, चल दारू पीते हैं
चल रही मदमस्त हवा, देह हुई मोतिया-नरम
शमा जलने दो मद्धम-मद्धम, चल दारू पीते हैं।।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल


{ २८१ } {May 2012}





एक - दो पल की मुस्कुराहट को
देर तक आँसुओं ने ही दोहराया
चन्द लमहों के प्यार की कीमत
खून दिल का भी नही चुका पाया।।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

{ २८० } {May 2012}





अपने मन की बातों को मैं अपने मन में कह लेता हूँ
आँखों में आँसू भर-भर आते, वाणी को संयम देता हूँ
घूँट-घूँट विष पीने का अब मुझको हो चुका अभ्यास
दर्द से मेरा रिश्ता है, दिल की आहों को सह लेता हूँ।।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

{ २७९ } {May 2012}





याद न कर उसे जो, मन के अनुसार नही मिलता
भूल रही हो तुम, कहीं पे बेमन प्यार नही मिलता
हासिल क्या होगा तुमको, यूँ रोने से अश्रु बहाने से
प्रेम-पीडा बिन प्रेमी को भी प्रेमोपहार नही मिलता।।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

{ २७८ } {May 2012}




भारत के नभ के ज्योतिर्मय तारे अस्त हो गये क्या ?
भारत के युवा शोक-सिन्धु में डूब पस्त हो गये क्या ?

क्यों ढक लिया है कृष्णावरण में भारत ने तन सारा ?
भारत डूबा अन्ध तमस में, पथ खो गया कहाँ हमारा ?

ओ भारत के नव प्रकाश, प्रेरणा अब तुमको ऐसी आये।
साहस को तुम वरण करो, भारत पुनः स्वर्ग बन जाये।।


-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

Monday, May 14, 2012

{ २७७ } {May 2012}





ये भ्रमित हृदय, ये बहके मन
मानव का नित्य नैतिक पतन
वैभव, विलास से हो चकाचौंध
बढते अवनति की ओर चरन।।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल


{ २७६ } {May 2012}





लोगों के गैर - मुमकिन इरादों से
ज़िन्दगी भर लडता रहा, जीता भी
अब सिर्फ़ गुनगुनाता आग की धुन
मस्त-मलंगी में ज़िन्दगी जीता भी।।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

( २७५ } {May 2012}





हम उनको दोषी कहें, वो देते हमको दोष,
टुकडे-टुकडे देश हुआ, मिला नहीं संतोष,
पेड लगाया आम का, बना काँटेदार बबूल
देश जन चिन्ता करें, कैसा मिला परितोष।।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

{ २७४ } {May 2012}




दिल की बेचैनियाँ कुछ कहती है
उन पलों को हर वक्त सहती हैं
वीरानियों को हम साया बनाया
उदासियों में अब आँख बहती है।।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

{ २७३ } {May 2012}





भीड से भरी राह-डगर में भी
रूप सबसे अलग दमकता है
आसमाँ के अनन्त सितारों में
चाँद तनहा ही खूब चमकता है।।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

{ २७२ } {May 2012}




जिसकी कोई दवा नही यारों
बैर - अनबन रोग ही ऐसे हैं
करते नफ़रत प्यार से, उफ़
दुनिया में लोग कैसे-कैसे हैं।।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

{ २७१ } {May 2012}





जूझ कर ऊँची-ऊँची लहरों से
जलयान जैसे कूल तक पहुँचे
हम ज़िन्दगी से हजारों खार
पार कर, एक फ़ूल तक पहुँचे।।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

{ २७० } {May 2012}





रोज कहने को रात आती है
दिन के साये में डूब जाती है
जैसे खुश-ज़िन्दगी एक दिन
मौत के साये में डूब जाती है।।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

Wednesday, May 9, 2012

{ २६९ } {May 2012}




मयकदे का फ़साना कुछ और है
हरतरफ़ बस जाम का ही दौर है
साकी की नजर उठ्ठे जिस तरफ़
मयकशों को न मिले कोई ठौर है।।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

{ २६८ } {May 2012}




आहों में दर्द फ़ूलता - फ़लता है
दर्द के साँचे में गीत भी ढलता है
आँसुकों की पायल की रुनझुन
घायल मन सपनों को मचलता है।।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

{ २६७ } {May 2012}




सपनों को ढलते देखा है
वादों को टलते देखा है
प्यार होता पानी-पानी
प्रीत को छलते देखा है।।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

{ २६६ } {May 2012}




राणा प्रताप शौर्य शक्ति का ज्वलंत नाम
भारत भू का कण-कण करता तुम्हे प्रणाम।।

राणा की वक्र भृकुटि में था प्रलय मचलता
उनका विशाल स्कंध-वक्ष देख शत्रु दहलता
स्वयं हेतु क्या देश - हित दे निज प्राण को
दिखलाया हिन्द का जौहर इस जहान को।।

राणा प्रताप शौर्य शक्ति का ज्वलंत नाम
भारत भू का कण-कण करता तुम्हे प्रणाम।।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

{ २६५ } {May 2012}




वंशधर गाँधी के कब तक रहेंगे रौंदते इस चमन को
गुल जमींदोज़ हुए, खार ही खार दिख रहे मौसम को
क्या कहें, शब्द नहीं पर असलियत कैसे छुप पायेगी
कैसे सुने दर्द और भूख से निकलती सिसकियों को।।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

Monday, May 7, 2012

{ २६४ } {May 2012}




मन महकता नही तन में
रूप का मकरन्द क्या करे
आदमी चिथडा-चिथडा हो
दरका रहा संबन्ध क्या करें।।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

{ २६३ } {May 2012}




ये रूपवती - लावण्यमयी
अपनी निच्छल चितवन से
शायद उठा लेना चाहती है
समूचा ब्रह्माण्ड ! ! ! ! ! !

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

{ २६२ } {May 2012}




तुष्टि का ही पता न जब तुम्हारे मन को तो
फ़ूल सुख का चमन में खिल जाये असंभव है
सम्पदा विश्व भर की तुमको मिल भी जाये
पर शान्ति हृदय को तुम्हारे मिले असंभव है।।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

{ २६१ } {May 2012}




ज़िन्दगी में चलते चले गये हम लोग
एक मुश्किल से दूसरी मुश्किल तक
कोई मुश्किल ही न होती अगर चलते
प्यार संग अपनी-अपनी मंजिल तक।।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

{ २६० } {May 2012}




रात नींदों में सुख-सपन सजाये
दिन भी जैसे-तैसे ही गुजर जाये
साँस चल रही है पर नही मालूम
किस वन-उपवन को डगर जाये।।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

{ २५९ } {May 2012}




अवसाद भरी सकल दिशायें बुला रहीं
अब क्रान्ति की तूफ़ाँ भरी जवानी को
ठंडी ज्वाला हर अन्तर की ये चाह रही
शोला बन भस्म करे सत्ता दीवानी को।।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

{ २५८ } {May 2012}




रोटी को भूख रो रही, संकट में आस डगमग हो रही
शान्ति-शान्ति नाम जपते, शान्ति चीथडॊं में सो गयी
सत्ता के सत्ताधीशों पर सत्ता का ही नशा चढ गया
बेतौर रंग-ढंग से अपने भारत का लोकतंत्र सड गया।।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

{ २५७ } {May 2012}




मजबूरियाँ कब रहीं किसी के वश में
खौफ़ज़दा चेहरे भागते कश्मकश में
सुलह-समझौतों से बढती ज़िन्दगी
परिन्दे सीज़िन्दगी पर नही उश में।।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

(उश = घोंसला)

{ २५६ } {May 2012}




जिसको कहते हैं सभी कला
वह तो आत्मा की उमंग है
गीत-कविता-गजल भी तो
अन्तरात्मा की लयतरंग है।।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

{ २५५ } {May 2012}




आँख नम है तो क्या हुआ यारों
मेरे आँसू हर वक्त मुस्कुराते हैं
मेरे गीत चिराग बनते मँजिल के
आँधियों में भी जलते-जगमगाते हैं।।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

{ २५४ } {May 2012}




काजल आपकी आँखों का कुछ कहता है
देखो तो पढ कर उसको वो क्या कहता है
बरसों बरस बीत चुके दूर रह कर तब भी
मेरा चेहरा आपके दिल में अभी रहता है।।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

{ २५३ } {May 2012}




प्यार की रूह छटपटाती है
गीत की आस लडखडाती है
बदहवास सी इन हवाओं में
चिरागों की लौ थरथराती है।।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

{ २५२ } {May 2012}





बन्द हो गईं पलकें, लगी देखने अपना मन
स्वासों से उभरते नये स्वर, गीत नव-नूतन
भावनायें अनुभूतियों का कर रही नीराजन
चेह से देह मिली मन-चेतना कर रही नर्तन।।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

{ २५१ } {May 2012}




अपने केशों की छाँव में दो पल
मुझको ऐसे ही गुजार लेने दो
चला जाऊँगा बस मुझे केवल
अपनी कविता सँवार लेने दो।।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल



{ २५० } {May 2012}




शील, धर्म-रक्षक, प्रचन्ड संकल्पवान हैं जो
वीर अस्त्र-शस्त्र धारी परशुराम महान हैं वो
धीर-वीर मनुज हो कर भी इस धरातल पर
पुरुषोत्त्म, क्षमादानी देवता के समान हैं वो।।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

{ २४९ } {May 2012}




गमे - हिज्र इन आँखों से बयाँ है
कब हो गई सुबह, शाम कहाँ है
कुछ तो समझो मौसम के इशारे
हसीन है चाँद और रात जवाँ है।।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

{ २४८ } {May 2012}




कितनी ही कलियाँ उपवन में
सुरभित हो-हो कर मुरझातीं
कितनी ही सुधियाँ जीवन में
बनती हैं बन कर मिट जातीं।।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

Thursday, May 3, 2012

{ २४७ } {May 2012}





पर्वत पर बहते झरनों को इन सूखे मैदानों में आ जाने दो
खारे सागर में घुलने से पहले बादल बन प्यास बुझाने दो
कैसे सुनी - अनसुनी कर दूँ इन प्यासी, वीरान पुकारों की
मझधारों से कटती लहरों को तट पर जा कर खो जाने दो।।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल