Saturday, November 30, 2013

{ ७०९ } {Nov 2013}





सारा वातावरण ही हो चुका घिनौना
यौवन का तन आज हुआ खिलौना
वैभव को मिल गई नभ सी ऊँचाई
पर मानव आज हुआ कितना बौना।।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

{ ७०८ } {Nov 2013}





इश्क जो अल्फ़ाज़ों को छूता न था
दर्द दिल का पा अफ़साना हो गया।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

{ ७०७ } {Nov 2013}





यहाँ कौन कह सकता है कातिल तुझे
जब मुस्कुराकर कत्ल करने लग गयी हो।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

{ ७०६ } {Nov 2013}





मुरझाये हुए. तेरे तन-मन में फ़िर. से ऋतु बहार. आ जायेगी
जरा अपने मन-उपवन. को सींचों सारी तस्वीर बदल जायेगी
यादों की विरह अग्नि में अब और न झुलसाओ अपना यौवन
दर्द तुम्हारा बनकर स्याही, विरह की नई रूबाई लिख जायेगी।।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

{ ७०५ } {Nov 2013}





तुम्हारी मधुर याद के घन आ घिरे नयन अब बरसात बन कर बरसते
अधर प्यार की प्यास से जल रहे हैं तप्त ग्रीष्म की पवन सा झुलसते
सुना कर मधुर तान मधुवन जगाकर सपने सजाकर कहाँ छुप गये हो
तुम्हारे सुघर रूप की झलक देखने को तृषित नयन हैं अभी भी तरसते।।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

{ ७०४ } {Nov 2013}





कभी अलसाई सी लगती कभी सकुचाई सी लगती हो
कभी हृदय की दबी पीर से तुम उकताई सी लगती हो
कभी मौन हो जाती हो तो कभी हँसती और मुस्काती
कभी व्याकुल मन की पीड़ा से अकुलाई सी लगती हो।।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

Friday, November 29, 2013

{ ७०३ } {Nov 2013}





अब. और. न. प्यासे. को भटकाओ
अब. और न आशाओं को ठुकराओ
अब. न मेरे विश्वासों को तुम तोड़ॊ
कुछ मेरी सुनो कुछ अपनी सुनाओ।।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

{ ७०२ } {Nov 2013}




हैवानों के जमघट में ढूँढ़ रहा इन्सानों को
सन्नाटों के मरघट में ढूँढ़ रहा मस्तानों को
हरतरफ़ दफ़न हो रही हैं रूहें टूट रहे हैं दिल
देवगणों के संकट में पूज रहा शैतानों को।।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

Friday, November 1, 2013

{ ७०१ } {Nov 2013}





वह रूप-रस का भ्रमर नहीं मेरा सच्चा मीत है
मैं चातक हूँ उसका वह मेरा स्वाती का गीत है
पाँवों में सजती-बजती महावर और पायल सी
मेरे गद्य सम जीवन का वो सुगम सँगीत है।।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

{ ७०० } {Oct 2013}





कभी. धूप. में कभी. छाँव. में मन. के ठौर निराले देखे
कभी आस. में कभी प्यास में मन के बौर निराले देखे
वश न चले मन. के पँखों. पर जाने कहाँ-कहाँ ले जाये
कभी अगन में कभी सपन में मन के दौर निराले देखे।।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

{ ६९९ } {Oct 2013}





ये पीर अजानी तुमने
किस अजाने से पाई
था जो शाश्वत वरदान
पर बनी व्यथा करुणाई।।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

{ ६९८ } {Oct 2013}





यही तकदीर, यही तकदीर का अन्तर है
हर पुष्प खिला है पर महक नहीं पाया
काँटों के चुभने का दर्द सहा जिसने भी
वो ही पुष्प खिलकर आकर्षक बन पाया।।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

{ ६९७ } {Oct 2013}





कल जहाँ खिला था आँखों में प्यार का मधुमास
आज वहीं पर हम लिख रहे हैं हिज्र का इतिहास
दहलीज की हर एक आहट चौंका जाती मुझको
जाने और कितना बाकी है ज़िन्दगी में वनवास।।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

{ ६९६ } {Oct 2013}





गमों. के ऊपर. मुस्कुराहट. की चादर. ओढ़ लो
भावनाओं. की नाव. मनन. के तट को मोड़ लो
कामनाओं के वन में हिरण से भटकते मन को
रब की इबादत. के रँग-बिरँगे. गुलों से जोड़ लो।।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

{ ६९५ } {Oct 2013}





गमगीन दिलों के ज़ख्मों को सहलाया जाये
आओ चमन से रूठी बहारों को मनाया जाये
टकरा के कहीं चूर-चूर न हो जायें ये आइने
आओ कि इन पत्थरों को फ़ूल बनाया जाये।।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल