Friday, August 30, 2013

{ ६८० } {Aug 2013}





मित्रता से दुराव, बैर से लगाव है
दुख समेट रहा दर्द से अपनाव है
बियावान में कहीं खो गई प्रीति है
गैर तो गैर खुद से भी अलगाव है।।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

{ ६७९ } {Aug 2013}





हावी हो रही विदेशी ताकतें दशा देश की बिगड़ी
आतंकियों का उग्र रूप मारे स्वतंत्रता को टँगड़ी
चहुँ-दिश है लूट-पाट और अनीति का साम्राज्य
बहरे हुए सत्ताधीश और सरकार है अँधी-लँगड़ी।।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

{ ६७८ } {Aug 2013}





हाड़-मास के इस पिंजर में दिल शीशे का
ज़िन्दगी में कई-कई बार उसे दरकते देखा।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

{ ६७७ } {Aug 2013}





दुश्मनों की चार सूँ भीड़ ही भीड़ है मगर
दिल ने जो ठाना है हम कर के दिखायेंगे।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

{ ६७६ } {Aug 2013}





ये कैसा हादसा हुआ रास्ते चाक-चौबन्द हैं
शहर में सहमें हुए तमाम बशर दीख रहे हैं।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

{ ६७५ } {Aug 2013}





उसने कुछ भी कहा नहीं हम भी कुछ न बोल सके
शायद हमको इजहारे मोहब्बत का हुनर आता नहीं।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

Thursday, August 22, 2013

{ ६७४ } {Aug 2013}





तमाम उम्र वफ़ा जिससे मैं निभाता रहा
आज उसे भी मेरी वफ़ाओं पे एतबार नहीं।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

{ ६७३ } {Aug 2013}





रास्ते. भटक. गये हैं. मँजिलों. की चाह में
कसमसा उठी हैं मँजिलें समय की बाँह में
विडम्बना मुहुर्त हो गयी अतृप्त आस की
निष्प्राण. उमँग सो गयी थकी हुई आह में।।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

{ ६७२ } {Aug 2013}





इन्द्रधनुषी प्यार के तरन्नुम सी
सुबह की खुशगवार कुमकुम सी
मेरे. अन्तःकरण. के मन्दिर. में
एक. मूरत सजी है हूबहू तुम सी।।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

{ ६७१ } {Aug 2013}





मचलते रहते सैकड़ॊं अरमाँ शबो-रोज़ इस दिल में
हमारे ख्वाबों से तुम जुदा हो जाओ बड़ा मुश्किल है।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

{ ६७० } {Aug 2013}





जाने कैसा जादू किया आपकी नजरों नें
तामीर हो गई है एक ख्वाबों की इमारत।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

{ ६६९ } {Aug 2013}




यूँ तो मेरे हाथों में लकीरें बहुत है पर
ज़िन्दगी में गर्दिश भी कुछ कम नहीं।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

{ ६६८ } {Aug 2013}





दूषित दशा-दिशा से भारत अब उद्धार चाहता है
देशवासियों देश तुमसे अब ये उपकार चाहता है
समय के भीषण वज्रपात से भारत दहल रहा है
संस्कृति का यह उपहास अब उपचार चाहता है।।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

{ ६६७ } {Aug 2013}





जो भी पा न सका अब तक तुम्हे
उसको भी तेरा सौन्दर्य लुभाता है
फ़ूल चाहे किसी का भी हो मगर
उसकी गँध से सभी का नाता है।।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

Tuesday, August 20, 2013

{ ६६६ } {Aug 2013}





क्या ऐसा मोहिनी सोनल रूप कहीं आँखों ने है देखा
मनोरमा के नख-शिख का भूगोल रहा कैसे अनदेखा
रक्ताभ कपोल पर नारँगी धूप सम चहकती चितवन
कौन लिख पायेगा बोलो इस रूपमनी रूपसी का लेखा।।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

{ ६६५ } {Aug 2013}





मेरी वेदना मेरे शब्द, मेरे शब्द मेरे गीत हैं
खारजारी रहगुजर में, सँगरेज़े मेरे मीत हैं।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

{ ६६४ } {Aug 2013}





दर-दर भटक रही तरुणाई, पीत वसन ओढ़े-लहराये
भूखे पेट भटकता भारत, यौवन हाट-हाट बिक जाये
कान्ति-हीन हो गया मुखौटा, पीड़ा संगिनी बन आई
भावों का असफ़ल व्यापारी, कैसे गीत प्यार के गाये।।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

Saturday, August 17, 2013

{ ६६३ } {Aug 2013}





जिसमें हो प्यार वो नजर ढूँढ़्ते हो?
मरुथल में हरा-भरा शजर ढूँढ़्ते हो??

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

{ ६६२ } {Aug 2013}





उठो जवानों हर-हर कह झँझा बन सोए पौरुष का ज्वालामुखी जगाओ
बन कर महाकाल विकराल बवन्डर, पापी दुश्मन देश में आग लगाओ
उठो दीवानों अब न करो देर हुँकार भरो, बढ़ कर दुश्मन का सँहार करो
मानवता के इन हत्यारों का वध कर धरती पर नरमुँडों का ढेर लगाओ।।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

{ ६६१ } {Aug 2013}





देश की आबो-हवा में घुल गई नापाक बारूदी गँध किस कदर
बुजदिल हुई राजसत्ता, जन-जन का खौलता खून का सागर
दोस्त के भेष में दुश्मन सजा रहा रोज ही अदब की महफ़िले
हम बन के अमन के पुजारी बस रोज उड़ा रहे सफ़ेद कबूतर।।

-- गोपाल कॄष्ण शुक्ल

{ ६६० } {Aug 2013}





तेरी तिश्नगी पर कुछ तू भी तो गौर कर
क्या तमाम ज़िन्दगी ऐसे ही जिये जाऊँ मैं।

-- गोपाल कॄष्ण शुक्ल

{ ६५९ } {Aug 2013}





जब बसन्त ही पौधे चर जाये तब कैसे पुष्प खिलें
भरी दुपहरी ढ़ल जाये सूरज, तब साँझ कहाँ मिले
सूखे-भूखे खेत छाती फ़ाड़-फ़ाड़ चिल्लाते रह जाते
कुएँ जहाँ खुद ही हों प्यासे, वहाँ पानी कहाँ मिले।।

-- गोपाल कॄष्ण शुक्ल

Friday, August 16, 2013

{ ६५८ } {Aug 2013}





दोस्ती हरदम दोस्तों की मददगार होती है
ज़िन्दगी, दोस्ती.. की. तलबगार.. होती है
संगरेज़ी. रहगुज़र पर बिछाती जाती फ़ूल
दोस्त. की दोस्ती. इतनी. वफ़ादार होती है।।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

{ ६५७ } {Aug 2013}





जमीं पर उतरा है चाँद, खिली चाँदनी है
महक उठा जर्रा-जर्रा कितनी मोहिनी है
चट्टानें भी जिसे सुन कर झूम-झूम उठें
झरनों की सदा सी वो मधुर रगिनी है।।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

{ ६५६ } {Aug 2013}





तुम क्या हमसे रूठ गये कि अब
अपना साया भी अजनबी हो गया।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल