Wednesday, December 28, 2022

{९९१}




बिन पलक झपके चकोरी सी तकती है मुझे 
अपनी पलकों पर मुझे अब सजा भी ले तू। 

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल 




थरथराते होंठ मेरे न कुछ कहें न ही कह पायें 
बस सह लेता हूँ जो मिलती अपनों से वेदनाएं। 

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल 




अब मेरा अपनापन भी फरेब लगता तुम्हें 
कुछ तो प्यार को समझो कि ज़िन्दगी कटे। 

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल 




तेरी उलफ़त ने मुझको बस ग़म ही ग़म दिए 
तुझसे दिल लगाने का ये अच्छा इनाम पाया है। 

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल 




मुझसे बेवजह पूछते हो तुम वफ़ा के मायने 
मैं तो तुम्हें हाथों की लकीरों में बसा चुका हूँ। 

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल 

Tuesday, December 27, 2022

{९९०}




सिलसिला दर्दों-ग़म का ही जारी है 
जीस्त की चुकता हो रही उधारी है। 

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल 





शकों-शुबहा की रेत के आशियाने कब टिकते हैं 
किसी दिल में प्यार का घर बनाओ तो अच्छा है। 

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल 




मोहब्बत का असर आज होता क्यों नहीं 
शायद चाँदनी के बीच बदली आ गई है। 

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल 





चाँद जाने कहाँ कैसे खो गया 
चाँदनी को ही हम तरसते रहे। 

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल 



Thursday, December 8, 2022

{९८९}




लोग भी क्या से क्या न जाने हो गये 
कल तक जो अपने थे बेगाने हो गये। 

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल 





तुझसे मिलता हूँ तो खामोश सा हो जाता हूँ 
पर ऐ ज़िन्दगी तुझसे सवालात कई करने हैं। 

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल 





कुछ न कह कर सब कहा तुमसे 
न रही कोई गिला-शिकवा तुमसे 
शायद लकीरों की कोई साजिश है 
जो रख रही है मुझको जुदा तुमसे।। 

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल 





जिनकी बन्दूकें चलें दूसरों के काँधों से 
उनकी खुद लड़ने की औकात नहीं होती। 

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल 





हयाते-मोहब्बत शायद मुझसे रूठ गई है 
ज़िन्दगी की खामोशीयाँ अब सिमटती नहीं। 

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल 

Monday, December 5, 2022

{९८८ }




ये  खून रिस  रहा है  ज़ख्मे-नज़र का 
जाने क्यों दुनिया इसे अश्क कहती है। 

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल 





याद कर उस भूली-बिसरी याद को 
हमने सोए हुए ज़ख्म को जगाया है। 

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल 





संगे-राह उनकी रहगुजर से हमेशा हटाता रहा हूँ 
शिकायतें मेरे हम-राहियों को फिर भी है मुझसे। 

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल


 


न ही पूजा हूँ, न ही बन्दगी हूँ मैं 
जी भर जी लो मुझे ज़िन्दगी हूँ मैं। 

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल 





शतरंज की बिसात पर रखी है ज़िन्दगी 
मोहरा बन के रह गया हर आदमी यहाँ। 

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल 





रह न सकूँ साकी मैं होश में 
कोई जाम ऐसा पिला दे तू। 

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल


 


मोहब्बत में मुकद्दर ने हमें यही सौगातें दी हैं 
ज़िन्दगी सजा, साँसें कफ़स के मानिन्द हो गईं। 

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल 

Thursday, November 24, 2022

{९८७ }




मुस्कुराहटों के लिये ये लब तरस गये 
अब खामोशीयाँ ही दर्द से कराहती हैं। 

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल 




ज़िन्दगी ने अनगिनत घाव दिये दिल को 
वक्त गुजरा पर लहू अभी भी बह रहा। 

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल 




न करो कोशिश मुझ जैसी 
बासी लकीर को हटाने की 
मैं उतना ही याद आऊँगा 
मुझे जितना तुम मिटाओगे। 

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल 




बाँध देती है उम्र मस्ती को सीमाओं में 
काश कि उम्र बचपन में ही ठहर जाती। 

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल 




कुछ हँसीं लम्हे चुरा लेने को जी चाहता है 
तुमसे तुम्हीं को चुरा लेने को जी चाहता है। 

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल 




अपनों मे हो गया जब गैर हूँ तब गैरों की क्या दरकार 
अपनों को अपनों कि न जरूरत न अपनों से सरोकार। 

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल 

Tuesday, November 22, 2022

{९८६ }




मैं हूँ एक ठहरी हुई खामोशी जिसकी कोई आवाज नहीं 
मैं वो अफ़साना जिसका कोई अंजाम नहीं, आगाज़ नहीं 
जर्जर पिंजर सँग अब बैठा हूँ टूटती साँसों का हुजूम लिए 
पस्त हो गये हौसले सारे अब बची कूवते - परवाज़ नहीं।। 

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल 





बिछी रह गईं मेरी आँखें पर तुम नहीं आये 
यादों में ही खो गईं यादें पर तुम नहीं आये 
टुकड़े-टुकड़े हो कर अब चुभ रही सीने में 
नम हुईं यादों की आँखें पर तुम नहीं आये।। 

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल 





दरिया तो चाहता है कि बुझा दे सबकी प्यास 
मगर कोई प्यासा पास उसके आए तो सही। 

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल 





वो बुलंदियाँ भी किस काम की जनाब 
इंसान चढ़े और इंसानियत उतर जाये। 

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल 





तुम को अपनी आँखों में तस्वीर की तरह मैं भी सजा लूँ 
दिल में धड़कन की तरह तुम भी मुझे बसाओ तो सही। 

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल 





अब कर लिया है तीरगी से समझौता 
खयाल छोड़ दिया चराग जलाने का। 

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल 

Sunday, November 20, 2022

{९८५ }




शब्दों के बाण चले मुझ पर इस कदर 
हर ज़ख्म का निशान दिखता दिल पर। 

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल 





इश्क इबादत है जनाब व्यापार नहीं 
नेमत मिले तुरन्त रहती उधार नहीं। 

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल 





हम तो तूफ़ानों से भी बच कर आ गये 
लोग जाने कैसे साहिल पे डूब जाते हैं। 

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल 





यहाँ तू भी मेहमान मैं भी मेहमान 
यहाँ पर तेरा क्या और मेरा क्या। 

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल 





गूँजती आवाजों को ये सन्नाटे निगल न जायें 
रह - रह  कर  यही  खौफ़  सताता है मुझे। 

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल 

Wednesday, November 16, 2022

{९८४ }




शायद वो आसमान का आवारा बादल था 
जो मेरे अश्क लेकर मुझको प्यास दे गया। 

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल 





ढ़ल रहा है देखो आफताब 
कुछ तू भी कमा ले सवाब 
बाद कयामत के एक दिन 
खुदा करेगा तेरा भी हिसाब। 

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल 





अब ख्वाबों के हो गए हो तुम 
मेरी पलकें भिगो गए हो तुम 
क्यों हर किसी की आँखों में 
अपने आँसू पिरो गए हो तुम। 

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल 





अपनों को फुरसत नहीं गैरों को क्या सरोकार 
ज़िन्दगी बन कर रह गयी बस एक कारोबार। 

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल 





तेरे खातिर ही ये खता हुई हमसे 
बस तुझे ही अपना खुदा बनाया। 

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल 

Friday, November 11, 2022

{९८३ }





ज़िन्दगी ईमान की जीने का शऊर हो
खुशियाँ हों हर साँस में ऐसा सुरूर हो
चमक दिलों में, हो हर पल मुस्कुराहट
गैर दर्द में पर आँख में आँसू जरूर हो।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल 







भाई-चारा, प्यार मोहब्बत नहीं अगर 
तो रिश्तों-नातों को ढ़ो कर क्या होगा 
जिस दर पर  कोई भी न हमदर्द मिले 
उस दर को आँसू से धो कर क्या होगा। 

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल 

Thursday, November 10, 2022

{९८२ }




खूब हो रहा हो जिससे नफ़रत का सिलसिला 
मोहब्बत कर के देखो नया किरदार दिखेगा। 

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल 





सच के साए में झूठ पला करता है 
सच्चाई कब किसी से बर्दाश्त हुई। 

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल 





जागते हैं हम रात को बस इसी वास्ते 
वो ख्वाबों में आकर कहीं लौट न जाए। 

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल 



{९८१ }




चारों तरफ तेज  हवाओं  से घिरा हूँ 
इन आँधियों मे दीपक जलाऊँ कैसे। 

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल 






दरीचों से झाँक कर देख ली रँगीन दुनिया 
मेरे दिल में झाँक कर कभी दर्द भी देखो। 

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल 





पहले अपना ही घर था मगर अब लगता है 
अपने ही घर मे हो गए जैसे पराए से हम। 

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल 





ज़िन्दगी में दर्द सहते - सहते 
हम ज़िन्दगी जीना सीख गए। 

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल 





ज़ख्म कुछ  ऐसे मिले  हैं अपनों से 
अपने साए से भी अब डर लगता है। 

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल