Wednesday, March 20, 2013

{ ५१० } {March 2013}






सिर्फ़ दूरियाँ ही साथ चलती हैं
रेत, प्यासे हिरन को भरमाये
ज़िन्दगी के फ़रेब में उलझ के
हम कहाँ थे, कहाँ चले आये।।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

{ ५०९ } {March 2013}





ये न दोस्ती का रूप है न रँग दुश्मनी का
कोई नहीं जहाँ में जो बन सके किसी का
अब न आँसू ही बचे हैं न रह गई हैं आहें
शायद कोई नही इलाज दद्रे-ज़िन्दगी का।।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

{ ५०८ } {March 2013}





सहमी है मनुजता धमाकों और दँगों में
दहशत का रँग चटख है विविध रँगों में
साँसें ठहर गईं हर शख्स सहमा हुआ है
ज़िन्दगी उलझ कर रह गई है जँगों में।।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

Sunday, March 17, 2013

{ ५०७ } {March 2013}





बज रहीं कहीं शहनाइयाँ, कहीं मातम छाया निगाहों में
हँसती हैं कहीं रँगरेलियाँ, कोई सिमटा हुआ है आहों में
करता बल नग्न नर्तन, कहीं करुणा काँपती कराहों में
पुज रही हर तरफ़ दानवता, रो रही मनुष्यता राहों मे।।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

{ ५०६ } {March 2013}






तुझे चाहा है, तुझे अपनी आँखों में बसाया है
तुझसे किया है इश्क तेरा इश्क आजमाया है
मेरी नजरों पे अक्श रहता है सिर्फ़ तुम्हारा ही
मेरा हर गीत तुम हो तुमको ही गुनगुनाया है।।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

{ ५०५ } {March 2013}






अब तुम्हारे पास आना छोड दूँगा
इन आँसुओं को बहाना छोड दूँगा
रँग मेरे जब सजे, जग ने मिटाये
कल्पनाओं को सजाना छोड दूँगा।।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल