सुख क्षण-भँगुर, कष्ट अमर है निर्झर सा जीवन दाता है
धूमिल प्रतिभा को चमका कर जीवन में निखार लाता है
ठाठ-बाट, सुख-सुविधा, थक कर पथ में रुक-रुक जाते
पर संघर्ष, कष्ट, साहस ही कदम मिला मँजिल पाता है।।
मँजर जब वो देखा आँखों में नमी हुई
और दाँतों तले हैं उँगलियाँ भी दबी हुई
जिस दिश जिस तरफ़ भी देखा हमने
हर सिम्त दिखे आग ही आग लगी हुई
कहने को तो अमन चैन है निज़ाम में
पर दहशत तले हर ज़िन्दगी दबी हुई।।
आवाजें लहरों के रोने की सुनकर, घायल हुआ सूनापन
आसमानी शबनम के आँसू से भीगी सुबह, खिले चमन
रातों को कोई गाता रहता करुण-स्वर से सूने पनघट में
बेचैन लिपटने को साहिल से उफ़नाती नदिया का यौवन।।
अपने मन की बातों को मन ही मन में कहता हूँ
दर्द से बन गया रिश्ता अपना, आहों में बहता हूँ
भीगी आँखें, बोझिल पलकें, बन गये मेरे श्रँगार
भावों में उम्र कट गयी इससे सब कुछ सहता हूँ।।
कोई जी रहा है, ज़िन्दगी कोई ढो रहा है
कोई फ़ूल चमन में, कोई काँटे बो रहा है
लहू पी रहा है सुबह का ये शातिर अँधेरा
हे ! ईश्वर तेरी दुनिया में ये क्या हो रहा है।।
एक ही बार यह हृदय पराजित होता किसी हृदय से
यही पराजय सुखमय लगती सबसे बडी विजय से
सौन्दर्य-देवि का तभी मन करता है पूजन-अर्चन
फ़िर सुवासित हो उठता अन्तर्मन गँध-मलय से।।
मन का मैल हटा कर देखो मन देवालय हो जायेगा
फ़ूलों से अनुराग बढाओ काँटों का भय खो जायेगा
दुविधा के चौराहे पर क्यों चार दिशाओं में भटके हो
मन के मीत बनो, रस्ता जीवन का तय हो जायेगा।।
मैं वो मुसाफ़िर जो खो गया स्वयं चलते हुए डगर
साँसों के भी पाँव थक चुके खत्म होने को है सफ़र
तन-मन खेल खिलौना बन, खोया भीड तमाशे में
नहीं यहाँ पर हमदर्द है कोई कब छूटेगा ये काराघर।।
मत सहला-दुलरा इस चितवन की भीगी मुस्कान से
अच्छा है सोया रहने दो अब, मेरे इस झंझावात को
रूठ गयी काल्पनिक दुल्हन पीडा घुट-घुट कर रो रही
किसके द्वार टिकाऊँ अब मैं टूटे सपने की बारात को।।
हम बहुत याद आयेंगें, कभी तुमको अकेले में
जब हम खो चुके होंगें, गमे-दुनिया के मेले में
अकेले थे, अकेले हैं, और अकेले ही रहेंगें हम
जैसे चाँद भी है तनहा, किसी गम के झमेले में।।
लिखी भाग्य में अपने तनहाई उदास आँगन की
ओ मनपाँखीं मत निहार ऊँचाई नील गगन की
अपनी ही सूरत काली थी क्या गलती दर्पन की
अब तक ये ही समझे हम परिभाषा जीवन की।।
सच्चाई निर्वासित हो कर अब दर-दर आज भटक रही
आज मंथरा की गति देखो निज कौशल पर मटक रही
तुम्हे अनवरत चाटुकारिता पर अभिमान भले होता हो
देश को अवांछित मेहमानों की आवभगत कसक रही।।
कोई नही जो दिल की धडकन मन की आशा समझे
मैने पर्वत जिनको बनाया, मुझको वो माशा समझे
हर महफ़िल में खुशियाँ दी है मैंने इस दुनिया को
पर मुझको दुनिया वाले केवल एक तमाशा समझे।।
हर दिशा के हाथ में पत्थर सजे हैं छोटे बडे
एक सुन्दर काँच का घर है हमारी ज़िन्दगी
हो रहा सिन्धु-मंथन, है कहाँ अमृत घडा
देव-असुरों का समर है अब हमारी ज़िन्दगी।।
हिन्द की सेवा से मतलब था उसी से काम था
उसी धुन मे मगन, हर वक्त, सुबहो-शाम था
मैदाने सियासत का था मर्द कभी डरता न था
संसार में गूँजता "शेरे-हिन्द" उसका नाम था।।
ज़िन्दगी के वास्ते कुछ ख्वाहिशें तो थीं मगर
रेत का दरिया हमारे ख्वाबों में शामिल न था
डूब ही गया होता अगर जरा घबरा गया होता
मैं था वहाँ दूर तक दिखता जहाँ साहिल न था।।
बह उठी दरिया की मौंजें, आँख में उफ़ना समन्दर
कुछ आँसू बह चले हैं, कुछ ठहरे पलकों के अन्दर
हो गये हो तुम दूर जब से छाया भी न पा सके हम
साथ अश्कों ने दिया तब हर डगर हर रहगुजर पर।।