Sunday, March 17, 2013

{ ५०७ } {March 2013}





बज रहीं कहीं शहनाइयाँ, कहीं मातम छाया निगाहों में
हँसती हैं कहीं रँगरेलियाँ, कोई सिमटा हुआ है आहों में
करता बल नग्न नर्तन, कहीं करुणा काँपती कराहों में
पुज रही हर तरफ़ दानवता, रो रही मनुष्यता राहों मे।।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

No comments:

Post a Comment