Saturday, August 17, 2013

{ ६५९ } {Aug 2013}





जब बसन्त ही पौधे चर जाये तब कैसे पुष्प खिलें
भरी दुपहरी ढ़ल जाये सूरज, तब साँझ कहाँ मिले
सूखे-भूखे खेत छाती फ़ाड़-फ़ाड़ चिल्लाते रह जाते
कुएँ जहाँ खुद ही हों प्यासे, वहाँ पानी कहाँ मिले।।

-- गोपाल कॄष्ण शुक्ल

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