Friday, January 13, 2023

{१००३}



न हुआ दर्द कभी गैरों के चुबहोए खंजर से 
हम अपनों के फेंके पत्थरों से चोट खाये हैं। 

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल


 

कितने मासूम होते हैं गुलशन में खिले हुए ये महकते फ़ूल 
चमन में मँडराते हर भँवरे को अपना दोस्त समझ लेते हैं। 

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल 




वो दोस्त है या कि दोस्त नुमा दुश्मन है 
रहगुजर में हमारी जो पत्थर सजा रहा है। 

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल 




दर्दे-दिल सहते-सहते कितना जमाना गुजर गया 
पर समझ न पाये अभी तक उसकी रुसवाई को। 

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल


 


उसके  खयालों की  गठरी  हमेशा पास रही 
फिर न जाने क्यों ज़िन्दगी हमेशा उदास रही 
शायद  वो मेरी  आवाज को सुन न सका हो 
पर,  उसको  आवाज  देती मेरी  साँस  रही।। 

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल


 

पढ़ना चाहता था मैं उसके हुस्न की इबारत को 
पर उसके मद भरे नयनों में उलझ कर रह गया। 

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल 

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